अफ्रीकी देश मोरक्को के प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता के यात्रा विवरण रेहला का विस्तृत वर्णन | ibn batuta ki bharat yatra |

 

इब्नबतूता का परिचय

इब्नबतूता एक प्रसिद्ध अफ्रीकी यात्री था जो अफ्रीका के मोरक्को देश का निवासी था | इब्नबतूता 14वी शताब्दी में हिन्दुस्तान आया था | इब्नबतूता कवि, इतिहासकार तथा उच्च कोटि का विद्वान था | इब्नबतूता को पूर्वी देशों में से शेख शमसुद्दीन के नाम से जाना जाता है | इब्नबतूता का वास्तविक नाम अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद था | इब्नबतूता तो उसके कुल का नाम था और यही नाम भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है | इब्नबतूता को हिन्दुस्तान में मौलाना बदरुद्दीन के नाम से पुकारते थे |

इब्नबतूता का जन्म 24 फरवरी 1304 को मोराक्को के तैन्जियर शहर में हुआ था तथा उसकी मृत्यु 1369 { रेहला के अनुसार 1377-78} में मोरक्को के माराकेश शहर में हुई थी | इब्नबतूता की कब्र मोरक्को के तैन्जियर शहर में है  | इब्नबतूता के पिता का नाम मुहम्मद  बिन इब्राहिम था | इब्नबतूता के पूर्वज काजी का काम किया करते थे | इब्नबतूता धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था, इसी कारण 21-22 वर्ष की उम्र में वह अपने माता-पिता को रोता हुआ छोड़ कर 14 जून 1325 को अकेला ही मक्का और मदीना की यात्रा पर निकल पड़ा था |

इब्नबतूता की यात्रा

इब्नबतूता ने 14 जून 1325 को अपनी जन्मस्थली तैन्जियर से अपनी यात्रा की शुरुआत की थी और वह ट्यूनिस, अल्जीरिया होते हुए समुद्र के किनारे - किनारे 5 अप्रैल 1326 को अलेक्जेंड्रिया पहुंचा था | अलेक्जेंड्रिया के बारे में इब्नबतूता ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि संसार के 4 सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक अलेक्जेंड्रिया बंदरगाह है | अलेक्जेंड्रिया बहुत सुंदर नगर है, इसके चारों ओर पक्की दीवार बनी हुई है | नगर में प्रवेश के लिए चार सुंदर द्वार हैं | नगर से 3 मील की दूरी पर एक अत्यंत सुंदर प्रकाश स्तंभ बना हुआ है, परंतु मेरे यात्रा से लौटने तक उसे पूरी तरह से नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया था | नगर के बाहर रोमन शासक पौम्पी द ग्रेट का स्तूप बना हुआ है जो अत्यंत सुंदर है, परंतु कहा जाता है कि मिस्त्र के देवता के स्थान पर इसको बनवाया गया था |

अलेक्जेंड्रिया में ही इब्नबतूता की मुलाकात बुरहानुद्दीन और शेख उद दीन मुर्शिदी से हुई | यह दोनों मौलवी थे | बुरहानुद्दीन ने इब्नबतूता से कहा तू लंबी यात्रा करेगा | शेख उल दीन मुर्शिदी ने इब्नबतूता के बारे में भविष्यवाणी की, कि मक्का की यात्रा के बाद यमन, इराक होते हुए तू हिन्दुस्तान पहुंचेगा | इब्नबतूता अलेक्जेंड्रिया से काहिरा, जेरूसलम होते हुए दमिश्क पहुंचा | दमिश्क को उस समय पूर्व की रानी कहा जाता था और इब्नबतूता ने यहां पर मस्जिद, मठ और अन्य धार्मिक स्थल भी देखे | सितंबर 1326 में इब्नबतूता मदीना पहुंचा | हजरत मुहम्मद साहब, उनके साथी अबू बकर, उमर आदि की कब्रों का दर्शन कर मक्का गया, जहां पर पवित्र काबा के दर्शन किए |

मक्का में ही एक प्रसिद्ध मठ था, जहां पर इब्नबतूता के पिता के मित्र रहते थे जो अत्यंत विद्वान थे | इब्नबतूता ने उनसे मुलाकात की | इब्नबतूता ने 3 वर्ष तक मक्का में रहकर विद्वानों से अध्यात्म की शिक्षा ग्रहण की | यहीं पर उसने हिन्दुस्तान के बारे में सुना था कि वहां के शासक बहुत दानशील हैं | इब्नबतूता ने हिन्दुस्तान जाने का निश्चय किया और निशापुर, हिंद्कुश, हेरात, काबुल होते हुए वह सिंधु नदी के किनारे हिन्दुस्तान की सीमा पर पहुंचा  |

सिंधु देश का वर्णन

हिन्दुस्तान के बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक के साम्राज्य की सीमा यहीं से प्रारंभ होती है | मुल्तान से राजधानी दिल्ली का रास्ता 50 दिन का है, परंतु बादशाह के समाचार लेखकों के पत्र सिर्फ 5 दिन में ही पहुंच जाते हैं  | इस देश में डाक को बरीद कहते हैं तथा बोलचाल की भाषा में इसे डाक चौकी कहा जाता है  | यह दो प्रकार की होती है - एक तो घोड़े की, दूसरी पैदल | घोड़े की डाक को औलाक कहते हैं | प्रत्येक चार कोस के बाद घोड़ा बदला जाता है | घोड़े का प्रबंध बादशाह की ओर से किया जाता है | पैदल डाक जिसे इस देश में क्रोह कहते हैं | प्रत्येक आधे मील की दूरी पर गांव बसे हुए हैं, जिनके बाहर हरकारों के लिए बुर्जियां बनी होती हैं | प्रत्येक बुर्जी में हरकारे कमर कसे बैठे रहते हैं | प्रत्येक हरकारे के पास दो गज लम्बा डंडा होता है, जिसमें छोर पर तांबे के घुंगरू बंधे होते हैं |

नगर से डाक भेजते समय हरकारे के एक हाथ में चिठ्ठी और दूसरे हाथ में डंडा होता है | वह अपनी पूरी शक्ति से दौड़ता है | दूसरा हरकारा घुंगरू की आवाज़ सुनकर तैयार हो जाता है और उससे चिठ्ठी लेकर तुरंत दौड़ने लग जाता है | इसी प्रकार सारी चिठ्ठियाँ बादशाह के पास भेजी जाती हैं |  सिन्धु नदी को पार करने के बाद हम एक बांस के जंगल से गुजर रहे थे | यहाँ पर हमने पहली बार गैंडा देखा | जिसका सिर बहुत बड़ा होता है, किसी का छोटा भी होता है | इसके मस्तक पर दोनों आँखों के बीच में एक सींग होता है |

सैवस्तान (सैहवान)

ये विस्तृत नगर मरुभूमि में है, जहाँ वृक्ष का चिन्ह तक नहीं है | नदी के किनारे खरबूजों के अलावा कोई दूसरी चीज नहीं बोई जाती है | यहाँ के निवासी काबुली मटर की रोटी खाते हैं तथा यहाँ पर दूध भरपूर मात्रा में मिलता है | इस नगर में मुझे शेख़ मुहम्मद बगदादी नाम का एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसकी उम्र 140 वर्ष थी, जो शेख़ उस्मान के मठ में रहता था | रत्न नामक हिन्दू भी इसी नगर में रहता था जिसे गणित तथा लेखनकला का अच्छा ज्ञान था | इसकी पहुँच बादशाह तक हो गई थी |

लाहरी बन्दरगाह

ये नगर समुद्र के किनारे पर बसा हुआ है | इस नगर के निकट सिन्धु नदी समुद्र में मिलती है और यहाँ पर एक बंदरगाह है | बादशाह ने इस नगर की जागीर एक अला उल मुल्क नाम के खुरासानी काजी को दे दी थी | मैं अला उल मुल्क के साथ 5 दिन रहा  | एक दिन मैं अला उल मुल्क के साथ लाहरी नगर से सात कोस की दूरी पर, तारण नामक स्थान को देखने गया | यहाँ पर पशुओं तथा पुरुषों की असंख्य टूटी मूर्तियाँ, गेंहू, चना आदि अन्य वस्तुएं पत्थरों में बिखरी पड़ी थीं | प्राचीन नगर और भवन निर्माण की सामग्री भी फैली हुई थी |

इन भग्नावशेषों के मध्य में एक खुदे हुए पत्थर का घर भी था, जिसके मध्य में एक पत्थर के वेदी बनी हुई थी | उस वदी पर एक पुरुष की मूर्ति थी, जिसका सिर कुछ लम्बा और एक ओर से मुड़ा हुआ तथा दोनों हाथ कमर पर रखे हुए थे | इस स्थान के जलाशयों में जल सढ़ रहा था | यहाँ पर मैंने दीवारों पर प्राचीन भाषा में कुछ लिखा हुआ देखा | मूर्ति इस भग्नावशेष नगर के राजा की है | आज भी यहाँ के लोग इसे राज भवन कहते हैं |  यहाँ पर लिखे हुए लेखों से पता चलता है कि इसका विध्वंस लगभग 1000 वर्ष पूर्व में हुआ था | 

भक्कर

ये सुन्दर नगर की एक शाखा के मध्य में स्थित है | इसके मध्य में एक मठ बना हुआ है, जहाँ पर यात्रियों को भोजन मिलता है | इस मठ का निर्माण कशलू खां ने अपने शासनकाल में करवाया था |

अजोधन

यह एक छोटा सा नगर शेख़ फरीद उद दीन (बाबा फ़रीद) का है | मैं उनके मठ में गया और उनकी समाधि के दर्शन किए | मैं मठ से वापस अपने शिविर की तरफ जा रहा था, तभी मैंने देखा कि मेरे कुछ साथी दौड़ते हुए जंगल की तरफ जा रहे थे | मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि एक हिन्दू की मौत हो गई है | उसके साथ उसकी पत्नी भी जलेगी | मैं शिविर की तरफ चला आया और मेरे कुछ साथी हिन्दू महिला के सती होने का नज़ारा देखने चले गए | लौटकर उन्होंने मुझे बताया हिन्दू महिला अपने मृत पति के साथ जल कर मर गई | अजोधन से इब्नबतूता सरस्वती (सिरसा), हांसी, पालम होते हुए दिल्ली पहुंचा |

दिल्ली का वर्णन

दोपहर के समय हम राजधानी दिल्ली पहुंचे | इस महान नगर के भवन बड़े सुन्दर तथा मजबूत बने हुए हैं | इस नगर की मजबूत प्राचीर के समान, संसार में किसी नगर की प्राचीर नहीं है | नगर की प्राचीर 11 हाथ चौड़ी है जिसमें चौकीदारों तथा द्वारपालों के रहने हेतु कोठरियां बनी हैं | इस्लामिक जगत में ऐसा ऐश्वर्यशाली नगर नहीं है | छोटे –छोटे नगरों से मिलकर ये नगर बना है | सबसे प्राचीन नगर दिल्ली है, जहाँ पर सबसे ज्यादा हिन्दू रहते हैं | दूसरा नगर राजधानी सीरी है | तीसरा नगर तुगलकाबाद है जिसको बादशाह के पिता ने बसाया था | चौथा नगर जहाँपनाह है, जहाँ पर बादशाह (मुहम्मद बिन तुगलक) रहते हैं, और उन्हीं का बसाया हुआ नगर है |

दिल्ली की मस्जिद बहुत कुछ विस्तृत है । इसकी दीवारें, छत और फर्श सब कुछ सफेद पत्थर का बना हुआ है । मस्जिद में पत्थर के 13 गुंबद है । इस चार चौकी मस्जिद के मध्य एक लोहे की लाट खड़ी है । मालूम नहीं, यह किस धातु से बनाई गई है । एक आदमी तो मुझसे यह कहता था कि सातों धातुओं के मिश्रण को खौला कर यह लाट बनाई है । यह लाट लगभग 30 हाथ ऊंची है । मैंने अपनी पगड़ी खोलकर नापा तो इसकी परिधि 8 हाथ की निकली ।

मस्जिद के पूर्वी द्वार के बाहर तांबे की दो बड़ी-बड़ी मूर्तियां पत्थर में जड़ी हुई जमीन पर पड़ी हैं । मस्जिद में आने जाने वाले इन पर पैर रखकर आते जाते हैं । मस्जिद के स्थान पर पहले मंदिर बना हुआ था । दिल्ली विजय के उपरांत मंदिर तुड़वाकर मस्जिद बनवाई गई थी । मस्जिद के उत्तरी चौक में एक मीनार खड़ी है जो मुस्लिम जगत में अद्वितीय है । मीनार लाल पत्थर की बनी हुई है, और उस के शिखर पर चांदी के लड्डू लगे हुए हैं ।

मुहम्मद बिन तुगलक का इतिहास

*मैं खुदा, और उसके रसूल मुहम्मद की शपथ खाकर कहता हूं कि बादशाह की उदारता, दानशीलता और उसके स्वभाव का, मैं ठीक - ठीक वर्णन करूंगा । बादशाह के राजभवन को दारे सरा कहते हैं । इसमें प्रवेश करने के लिए कई द्वारों को पार करना पड़ता है । प्रथम द्वार पर सैनिकों का पहरा रहता है । शहनाई और नगाड़े बजाने वाले भी यहीं बैठते हैं । किसी महान व्यक्ति या अमीर के अंदर प्रवेश करते ही नगाड़े तथा शहनाईयों से उसका नाम उच्चारण कर, उसके आगमन की सूचना दी जाती है ।

प्रथम द्वार पर ही वध करने वालों के लिए चबूतरे बने हुए हैं । बादशाह का आदेश होते ही, हजार स्तंभ नामक राजभवन के सामने लोगों का वध किया जाता है । इसके बाद मृत व्यक्ति के सिर को काट कर 3 दिन के लिए प्रथम द्वार पर ही लटका दिया जाता है । बादशाह खून की नदियां बहाने तथा लोगों के हाथ पैर काटने के लिए प्रसिद्ध है । शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो, जिस दिन किसी मनुष्य का वध न किया जाता हो ।

*दरबार शाम की नमाज के बाद और कभी कभी रात तक लगा रहता है । बादशाह के सिंहासन पर बैठने के बाद दरबारी उच्च स्वर में बिस्मिल्लाह कहते हैं । प्रत्येक दरबारी सबसे पहले आकर बादशाह कि वंदना करता है, और उसके बाद अपने नियत स्थान पर जाकर बैठ जाता है । जब कोई हिंदू व्यक्ति या राजा, बादशाह की वंदना करता है तो बिस्मिल्लाह की जगह हिदाक् अल्लाह कहते हैं । बादशाह किसी यात्री के साथ बड़ी कृपा और मृदुलता से वार्तालाप करता है । उसका स्वागत करने के लिए मरहबा कहता है ।

*बादशाह नमाज पर बहुत जोर देता है, जो नमाज नहीं पढ़ते हैं उन्हें मृत्युदंड देता है । कभी-कभी बाजार में घूमने वाले पुरुषों का बंद करवा देता है । बादशाह सोमवार और गुरुवार के दिन दीवान खाने के सामने वाले मैदान में स्वयं न्याय करने के लिए बैठता है । उस दिन आम जनता सीधे बादशाह से अपने न्याय की फरियाद करती है । एक बार बादशाह ने अपने भ्राता मसूद खां को बाजार में ले जाकर उसका वध करवा दिया था, और उसके शब को 3 दिन तक वहीं पर लटका दिया था ।

*बादशाह ने जब राजधानी दिल्ली से दौलताबाद में स्थानांतरित की तो, दिल्ली की जनता को भी वहां बसाने का निश्चय किया । बादशाह ने समस्त जनता को दिल्ली से दौलताबाद जाने की आज्ञा दी, परंतु लोगों ने दौलताबाद जाना अस्वीकार कर दिया । बादशाह ने पूरे शहर में मुनादी कराई और कहा 3 दिन बाद नगर में कोई व्यक्ति ना रहे । बहुत से लोग चले गए, पर कुछ अपने घरों में ही छुप कर बैठे रहे । बादशाह ने अपने सैनिकों को नगर में जाकर देखने की आज्ञा दी कि कहीं कोई व्यक्ति शेष तो नहीं रह गया । सैनिकों को केवल दो व्यक्ति मिले, एक अंधा था, दूसरा लूला था । दोनों को बादशाह के सामने लाया गया । बादशाह ने लूले व्यक्ति को पत्थर फेंकने वाले हथियार से उड़ाने की सजा दी ।

अंधे व्यक्ति को बादशाह ने घोड़े के पीछे बांधकर दौलताबाद तक घसीट ने की सजा दी । दौलताबाद पहुंचने पर सैनिकों ने देखा तो अंधे व्यक्ति का केवल एक ही पैर दौलताबाद पहुंचा । दिल्ली नगर निवासी यह देखकर अपनी अपनी संपत्ति छोड़कर भाग निकले । नगर सुनसान हो गया, फिर बादशाह ने रात को महल की छत से शहर का नजारा देखा, तो पूरे शहर में ना कोई धुआं था, ना कोई प्रकाश था । ऐसा भयानक दृश्य देखकर बादशाह बोला अब मेरा ह्रदय ठंडा हुआ ।

*बहराइच नगर नदी के किनारे पर बसा हुआ सुंदर नगर है । सालार मसूद ने यहां के आस-पास का बहुत बड़ा भू-भाग विजय किया था । उनकी समाधि भी इसी नगर में है । शेख सालार मसूद की समाधि के दर्शन करने के बाद बादशाह नदी के उस पार चला गया ।

*बादशाह के दक्षिण में चले जाने के बाद मुल्क में अकाल शुरू हो गया । मैंने 3 हिंदू स्त्रियों को महीनों पहले मरे हुए जानवर का मांस खाते देखा । इन दिनों लोगों की दशा ऐसी हो गई थी कि लोग जानवरों की खालों को पका-पका कर खाते थे । कभी-कभी अपने ही पालतू जानवरों की हत्या करके उनका खून तक पी जाते थे ।

हमने हांसी और सिरसा के बीच अगरोहा नामक नगर में भयानक दृश्य देखा । पूरा नगर वीरान पड़ा हुआ था । रात्रि होने पर हम एक वीरान घर में घुसे, तो वहां पर मैंने देखा कि एक व्यक्ति किसी मृत व्यक्ति को भून भून कर खा रहा था । बादशाह ने जनता का यह कष्ट देखकर दिल्ली में रहने वाली जनता को छह - छह महीने के लिए पर्याप्त अन्न देने का आदेश दिया ।

*राजभवन के अंदर हम ख्वाजा जहां के साथ गए । हजार स्तंभ वाले महल में बादशाह साधारण दरबार किया करता था । मेरे साथ, मेरे सभी साथी थे । सबसे पहले वजीर महोदय ने बादशाह की झुककर वंदना की । इसके बाद मैंने बादशाह कि वंदना की । प्रत्येक यात्री को बादशाह की इसी तरह वंदना करनी पढ़ती है । हम सबके वंदना करने के बाद बिस्मिल्लाह का उच्चारण किया गया ।

*बादशाह की माता को सब लोग मखदूम ए जहां कह कर पुकारते हैं । राजमाता बहुत वृद्धा है । सदा दान पुण्य करती रहती हैं । राजमाता ने बहुत से खानकाह (मठ) का निर्माण करवाया है, जहां पर यात्रियों को भोजन मिलता है । राजमाता नेत्र विहीन हैं । बादशाह के द्वारा भांति - भांति भांति प्रकार की औषधियों से उपचार करवाया, परंतु नेत्र की ज्योति नहीं आई ।

*1 दिन बादशाह से मेरा मिलना हुआ । मैंने बादशाह को कुर्सी पर बैठे हुए पाया, देखने पर पहले मुझे साधारण सा प्रतीत हुआ परंतु उसके हाव भाव देखकर मैं समझ गया कि यही बादशाह है । मैंने बादशाह कि पुनः वंदना की, बादशाह के भतीजे ने मेरी वंदना की और कहा बिस्मिल्लाह मौलाना बदरुद्दीन । इस देश में लोग मुझे मौलाना बदरुद्दीन कह कर पुकारते हैं । इसके बाद मैं बादशाह के निकट गया । बादशाह ने कोमल स्वर से फारसी भाषा में मुझसे कहा - तुम्हारा आना शुभ हो, चित्त प्रसन्न रखो, तुम पर मेरी सदा कृपा बनी रहेगी ।

बादशाह ने मेरा देश पूछा - मैंने पश्चिम में बताया, तो बादशाह ने कहा अमीर उल मोमिनीन के देश से हो? मैंने हां में जवाब दिया । बादशाह ने कहा तुमने जो मेरे देश में आने की कृपा की और कष्ट सहे, उसके लिए मैं तुम्हें क्या दे सकता हूं? इस नगर (दिल्ली) के समान इस पूरे देश में कोई नगर नहीं है, तुम इसे अपनी मिल्कियत समझो । बादशाह के ऐसे वचन सुनकर हमने उसको धन्यवाद दिया और खुदा से उसके लिए प्रार्थना की । इसके बाद हम लोगों का पद और वेतन नियत किया गया । मेरा वेतन 12000 दीनार वार्षिक नियत किया गया ।

मैंने कहा लेखक होना और मंत्री का कार्य करना, मेरा काम नहीं है । मेरे बाप दादा काजी और शेख का ही काम किया करते थे । बादशाह मेरा उत्तर सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । इसके बाद मुझे दिल्ली का काजी नियुक्त किया गया । 12000 दीनार वार्षिक मेरा वेतन नियत किया गया, और इतनी ही वार्षिक आय की जागीर प्रदान की गई । बादशाह ने कहा दिल्ली के काजी का पद कोई ऐसा वैसा पद नहीं है, हम इसको बड़ा महत्व देते हैं । मैं यहां की भाषा से अनभिज्ञ था, इसलिए बादशाह ने मेरे अधीन दो उपकाजी नियुक्त किए, जो यहां की भाषा जानते थे ।

कुछ वर्षों तक मैं दिल्ली के काजी पद पर आसीन रहा, परंतु कार्य में मेरा मन नहीं लग रहा था । 1 दिन बादशाह ने मुझसे कहा - मैं भली-भांति जानता हूं कि तुमको पर्यटन की बड़ी लालसा लगी रहती है, इसीलिए मैं तुम्हें अपना दूत बनाकर चीन देश के बादशाह के पास भेज रहा हूं । इतना कहकर उसने मेरी यात्रा का समस्त सामान जुटाना प्रारंभ कर दिया और मेरे साथ जाने के लिए व्यक्ति भी नियत कर दिए ।

चीन देश के बादशाह ने अपने दूत मंडल के साथ बादशाह के लिए 100 दास दासियां, पांच मन कस्तूरी, 5 रत्न जड़ित हीरे, पांच तलवार भेजी थीं । चीन के बादशाह ने हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में बौद्ध मठों का पुनर्निर्माण करवाने की प्रार्थना की, क्योंकि चीन के निवासी उस क्षेत्र में धार्मिक यात्रा करने के लिए आते थे । बादशाह ने जजिया कर के बदले बौद्ध मठों के पुनर्निर्माण करने की आज्ञा स्वीकार की । चीन के बादशाह ने जो उपहार भेजे थे, उनसे दोगुने उपहार बादशाह ने चीन के बादशाह के लिए भेजें । इस प्रकार से चीन जाते समय हमारे पास एक अच्छा समुदाय हो गया था ।

एक दिन साथियों के साथ घोड़ों पर सवार हो, मैं बाहर गया । ग्रीष्म ऋतु होने के कारण हम सब बगीचे में घुसे ही थे कि चिल्लाहट सुनाई दी, और हम गांव की ओर मुड़ पड़े । इतने में कुछ हिंदू हमारे ऊपर आ टूटे, परंतु हमारे सामना करने पर उनके पांव न टिके । यह देख हमारे साथियों ने भिन्न-भिन्न दिशाओं में उनका पीछा करना शुरू कर किया । में  अकेला रह गया | 40 बाणधारी हिंदुओं ने मुझे घेर लिया । मैं

ने इशारा करके उन्हें बता दिया कि मैं तुम्हारा बंदी हूं । यह लोग बंदी बना कर मुझको एक झाड़ी के भीतर ले गए । इसी स्थान पर घने वृक्षों के बीच एक सरोवर के निकट, यह ठहरे हुए थे । तीन पुरुष मुझको उठाकर एक घाटी की ओर ले चले, परंतु रास्ते में एक काले पुरुष को ज्वर हो जाने के कारण, वह मेरे शरीर पर अपने दोनों पैर रख कर सो गया, उसके बाद उसके दोनों साथी भी सो गए । मैं वहां से भाग निकला और मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी, मैंने सरसों के पत्ते खाकर अपनी भूख मिटाई ।

6 दिनों तक मैं भूखा प्यासा जंगलों में भटकता रहा, सातवें दिन में हिंदुओं के एक गांव में पहुंचा। यहां एक सरोवर भी था और शाक भाजी भी, परंतु मांगने पर किसी ग्रामवासी ने मुझे भोजन तक नहीं दिया । लाचार होकर मैं कुएं के पास गया, वहां पर मूली की पत्तियां पड़ी थीं । मैंने उन्हें खाकर अपनी भूख मिटाई । गांव में हिंदुओं का एक समुदाय भी खड़ा हुआ था और रखवाले भी घूम रहे थे । इनमें से एक व्यक्ति ने मेरा परिचय जानना चाहा, परंतु मैंने कोई उत्तर नहीं दिया और मैं धरती पर बैठ गया । उनमें से एक पुरुष मेरे पास आया और तलवार खींच कर खड़ा हो गया, परंतु अत्यधिक थकावट होने के कारण मैंने उसकी ओर देखा भी नहीं, पर उसने मेरी तलाशी ली ।

तलाशी में उसको कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । अगले दिन मैं प्यास के कारण व्याकुल हो उठा, और बहुत ढूंढने पर मुझे जल नहीं मिला । मैं एक उजड़े हुए गांव में गया, परंतु वहां जल का नामोनिशान भी नहीं था । थक हारकर में एक रास्ते पर चल पड़ा, कुछ दूर चलने के बाद मुझे एक कुआं दिखाई दिया । पनघट पर केवल मूंज की रस्सी पड़ी हुई थी । डोल का पता नहीं था, लाचार होकर मैंने अपनी पगड़ी को ही रस्सी में बांधा और जो कुछ जल मेरी पगड़ी में आ सका । उसी को चूसना शुरू कर दिया, इस तरह मैंने अपनी प्यास बुझाई । सामने देखा तो एक काला पुरुष मुझे दिखाई दिया, उसके एक हाथ में लोटा और दूसरे हाथ में डंडा था ।

मेरे निकट आते ही उसने मुझसे अस्सलामवालेकुम कहा, और मैंने भी इसके उत्तर में वालेकुमअस्सलाम कहा । उसने मुझसे फारसी भाषा में पूछा तुम कौन हो? मैंने उत्तर दिया कि मैं राह भूल गया हूं । मैं जल पीना चाहता था, परंतु उसने मेरा यह विचार रोककर तनिक धीरज रखने को कहा । अपनी झोली में से भुने हुए चने और चावल निकाल कर मुझे खाने को दिए । इसके बाद मैंने अपनी राह पकड़ी । मुझे इस प्रकार जाते देख, उसने मुझसे अपने साथ चलने को कहा, मैं उसी के साथ चल पड़ा । मेरे अंदर अत्यधिक थकावट थी ।

थोड़ी दूर चलने के बाद में बैठ गया, और उससे कहा कि मैं और चल नहीं पाऊंगा । उस काले पुरुष ने मुझसे कहा कि तुम मेरी पीठ पर सवार हो जाओ । मैंने बहुत मना किया, परंतु वह काला पुरुष नहीं माना । अंततः में उसकी पीठ पर सवार हो गया, मैं इतना थका हुआ था कि मुझे पता ही नहीं चला । मैं कब सो गया, जब मेरी आंख खुली तो मैंने स्वयं को एक गांव के निकट पाया । उस गांव का नाम ताजपुरा था । कोल (अलीगढ़) वहां से 2 कोस की दूरी पर था ।

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