ह्वेनसांग ने मथुरा, अयोध्या, प्रयागराज और वाराणसी के बारे ने क्या लिखा | Xuanzang history in hindi |

 

ह्वेनसांग का जीवन परिचय

*ह्वेनसांग का जन्म 6 अप्रैल 602/3 . में चीन के चिनल्यू (लुओयांग के निकट) नामक स्थान पर हुआ था ।

*ह्वेनसांग की मृत्यु 5 फरवरी 664 . को चीन के तोगचुआन में हुई थी ।

*ह्वेनसांग को युवान ध्वांग, युवान चांग, युआन त्यांग, चेनआई और यात्रियों का राजकुमार आदि के नामों से भी जाना जाता है ।

*ह्वेनसांग की मां का नाम लेडी सांग और पिता का नाम चेन हुई था ।

*ह्वेनसांग अपने चारों भाइयों में सबसे छोटे थे और बचपन में ही वह अपने बड़े भाई चैंगसी के साथ लूओयांग शहर के सिंगतू नामक बिहार में धम्म की शिक्षा ग्रहण करने गए ।

*सिंगतू बिहार में धम्म की शिक्षा ग्रहण करने के बाद ह्वेनसांग चंगान (चीन के शेडोंग प्रांत में) पहुंचे, जहां उन्होंने फाहियान के बारे में जाना और यहीं से उनके दिमाग में भारत यात्रा का ख्याल आया था ।

ह्वेनसांग का यात्रा विवरण

*ह्वेनसांग के यात्रा विवरण को सी-यू-की के नाम से जाना जाता है जिसे चीनी भाषा में स्वयं ह्वेनसांग ने लिखा था ।

*ह्वेनसांग का जीवन परिचय उनके मित्र हेई ली ने लिखा था ।

*ह्वेनसांग के यात्रा विवरण सी-यू-की का सबसे पहले अनुवाद फ्रेंच भाषा में स्टेनिस्लेस जूलियन ने 1850 में किया था ।

*1884 में सैम्यूअल बील ने सी-यू-की का चीनी भाषा से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया था ।

*ह्वेनसांग के यात्रा विवरण सी-यू-की का हिंदी में अनुवाद ठाकुर प्रसाद शर्मा ने किया है ।

ह्वेनसांग की भारत यात्रा

*ह्वेनसांग ने जिस समय भारत के लिए यात्रा शुरू की थी उस समय चीन में तांग वंश के राजा ताईचुड का शासन था । भारत में वर्धन वंश के राजा सम्राट हर्षवर्धन का शासन था ।

*ह्वेनसांग ने 629 . में चांगगांन से भारत के लिए अपनी यात्रा शुरू की, और ओकीनी (आधुनिक करशर), फीहान (फरगाना उज़्बेकिस्तान), सामोकेन (समरकंद उज़्बेकिस्तान), पूहो (बुखारा उज़्बेकिस्तान) होली सीमीकिया (ख्वारिज्म मध्य एशिया) होते हुए पोहो (बल्ख अफगानिस्तान में) पहुंचे ।

भारत और उसका वर्णन

*ह्वेनसांग ने अपने लेखों में भारत का नाम इन्तू लिखा हुआ है । इस देश को प्रत्येक प्रांत के अनुसार अलग-अलग नामों से जाना जाता है । यहां के निवासी जातिभेद के अनुसार बटे हुए हैं । इस देश को आमतौर पर ब्राह्मणों का देश कहा जाता है ।

*इस देश का क्षेत्रफल लगभग 90,000 ली है और इसके तीन तरफ समुद्र है । उत्तर में विशाल हिमालय पर्वत है । इस देश का उत्तरी भाग चौड़ा तथा दक्षिणी भाग पतला है ।

*इस देश के लोग दूरी को मापने के लिए योजन का प्रयोग करते हैं । एक योजन 8 कोस का होता है और एक कोस 500 धनुष का होता है । एक धनुष 4 हाथ का होता है और एक हाथ 24 अंगुल का होता है ।

*नगर और गांव में अधिकतर घरों का दरवाजा पूर्व दिशा की ओर होता है । राजा के सिंहासन का मुख भी पूर्व दिशा में ही होता है क्योंकि आम जन में ऐसी मान्यता है कि जब भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, तब उनका मुंह भी पूर्व दिशा की ओर ही था । कसाई, मल्लाह, जल्लाद और मेहतर आदि नगर तथा गांव से बाहर रहते थे ।

*इस देश के लोग आमतौर पर सफेद वस्त्र पहनना अधिक पसंद करते हैं । भोजन करने से पहले स्नान करते हैं ।

*वर्णमाला कि अक्षरों की संख्या 47 है । यह वर्णमाला अलग-अलग प्रदेशों में फैली हुई है । मध्य देश में पवित्रता के विचार से भाषा का मूल स्वरूप प्रचलित है ।

*7 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को पंचविधा की शिक्षा दी जाती थी, जिसमें पहली विद्या 'शब्दविद्या' होती थी । दूसरी विद्या 'शिल्पस्थानविद्या' होती थी, जिसमें कारीगरी और यंत्र बनाने की विधि सिखाई जाती थी । तीसरी विद्या 'चिकित्साविद्या' होती थी । चौथी विद्या 'हेतुविद्या' होती थी जिसमें सत्य और असत्य का ज्ञान सिखाया जाता था । पांचवी विदा 'अध्यात्मविद्या' होती थी ।

*शिक्षा की समाप्ति होने पर विद्यार्थियों का आचरण शुद्ध और परिपक्व माना जाता था ।

*हीनयान और महायान के भिक्खू अलग-अलग निवास किया करते थे और दोनों में मतभेद भी होते थे ।

*जब किसी विद्वान की प्रसिद्धि अधिक फैल जाती है, तब वह समय-समय पर शास्त्रार्थ के लिए लोगों को एकत्रित करता है । शास्त्रार्थ में जीतने वाली को बहुमूल्य आभूषणों के साथ हाथी पर बिठाया जाता है और भगवान बुद्ध के बिहार तक उसे ले जाया जाता है । शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले व्यक्ति पर लोग भद्दे मजाक किया करते हैं ।

*इस देश के लोग 4 समाज में बटे हुए हैं । पहले, ब्राह्मण जो शुद्ध आचरण वाले पुरुष होते हैं । दूसरे, क्षत्रिय राजवंशी हैं । तीसरे, वैश्य व्यापारी जाति के हैं । चौथे, शूद्र जो कृषक जाति के हैं । हर्षवर्धन के शासनकाल में जाति कर्म के आधार पर तय की जाती थी ना कि जन्म के आधार पर । ह्वेनसांग ने आगे लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र यह आपस में पद और प्रतिष्ठा को देख कर शादी करते हैं ।

*किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसका अंतिम संस्कार तीन प्रकार से होता है । 1.लकड़ी से एक चिता बनाई जाती है और शव को उस पर रख दिया जाता है । 2.जल द्वारा बहते हुए गहरे पानी में मृत शरीर को दबा देते हैं । 3. सन्यासी अपने शरीर का परित्याग करते हैं ।

मथुरा

*चीनी यात्री ह्वेनसांग ने मथुरा को अपने यात्रा विवरण सी-यू-की में मोटउलो के नाम से संबोधित किया है, जिसमें इसका क्षेत्रफल 5000 ली बताया है । भूमि अच्छी तथा उपजाऊ है । यहां के निवासी आमलक (आंवला) बहुत पैदा करते हैं । यहां पर बहुत ही उत्तम किस्म की कपास उत्पन्न होती है । यहां का मौसम गर्म है और लोगों का व्यवहार कोमल तथा आदरणीय है । यहां पर 20 संघाराम हैं, जिसमें 2000 से भी ज्यादा भिक्खू रहते हैं, जिनका संबंध हीनयान और महायान दोनों संप्रदायों से है । 5 देवमंदिर भी हैं, जिनमें अलग मत के अनुयाई रहते हैं । सम्राट अशोक ने जिन 3 स्तूपों का निर्माण यहां पर करवाया था वो आज भी मौजूद हैं।

*यहां पर भगवान बुद्ध, सारिपुत्त, मोगदालयन, मैत्रेय, उपाली, आनंद, राहुल, मंजूश्री तथा अन्य बोधिसत्वों के स्तूप बने हैं । जो लोग भगवान बुद्ध के उपदेशों का अभ्यास करते हैं, वे सारिपुत्त को, जो समाधि में मग्न रहते हैं वे मोगदालयन को, जो सूक्तों तो का पाठ करते हैं, वे मैत्रेय को, श्रमण राहुल को और महायान संप्रदाय के बोधिसत्वों को सम्मान देकर अनेक प्रकार की पूजा करते थे । राजा और उसके सामंत भी, यहां पर आकर धार्मिक उत्सव मनाते हैं । नगर के पूर्व दिशा में 5 या 6 ली की दूरी पर, एक ऊंचा संघाराम है, इसके आसपास गुफाएं हैं, जिसे महामान्य अर्हत उपगुप्त ने बनवाया था । इसी संघाराम में एक स्तूप है, जिसमें भगवान बुद्ध की कटे हुए नाखून रखे हैं । भिक्खू उपगुप्त का जन्म मथुरा में ही हुआ था, इन्होंने मार राजा को पराजित करके अर्हत को प्राप्त किया था । यहां के लोग इन्हें भगवान बुद्ध की परछाई कहते हैं ।

अयोध्या

*चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में अयोध्या का नाम ओयूटो लिखा हुआ है । यहां पर अनाज अत्यधिक मात्रा में पैदा होता है । सभी तरह के फल और फूल यहां पर मौजूद है । यहां के निवासियों का आचरण शुद्ध और सुशील है । यहां के निवासी धार्मिक कार्य में विशेष रुचि रखते हैं । यहां पर 100 संघाराम हैं, जिनमें 3000 से भी ज्यादा भिक्खू निवास करते हैं, जिनका संबंध हीनयान और महायान दोनों संप्रदायों से है । 10 मंदिर हैं जिनमें अलग मत की अनुयाई रहते हैं । यहां पर एक प्राचीन संघाराम है, जिसमें आचार्य वसुबंधु ने कई वर्षों तक कठिन परिश्रम करके अनेक बौद्ध ग्रंथों की रचना की थी । नगर के उत्तर की ओर 40 ली दूर नदी के किनारे एक विशाल संघाराम है, जिसके अंदर सम्राट अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप है, जो बहुत सुंदर है । इसी संघाराम में भगवान बुद्ध एक वर्षावास तक ठहरे थे ।

प्रयागराज

*चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण सी यू की में प्रयागराज को पोलोयीकिया के नाम से संबोधित किया गया है । राजधानी दो नदियों के बीच में स्थित है तथा यहां पर भरपूर मात्रा में अनाज पैदा किया जाता है । यहां के निवासियों का व्यवहार सभ्य और सुशील है । निवासी विद्या से अत्यधिक प्रेम करते हैं, परंतु उनके धार्मिक सिद्धांत मजबूत नहीं हैं। यहां पर हीनयान संप्रदाय के भिक्खू निवास करते हैं । यहां पर मंदिर भी हैं, जिनमें अलग मत के अनुयाई रहते हैं । राजधानी के दक्षिण पश्चिम दिशा में एक चंपक नामक वन है, जिसमें सम्राट अशोक के द्वारा बनवाया गया विशाल स्तूप मौजूद है । इसी स्तूप के पास ही एक प्राचीन संघाराम है, जहां पर बोधिसत्व देव ने शतशास्त्र वैपुल्यम नामक ग्रंथ की रचना करके, हीनयान संप्रदाय के सिद्धांतों का खंडन किया था ।

*उसी समय एक हीनयानी ब्राह्मण ने बोधिसत्व देव को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी, क्योंकि वह अपनी तर्कशक्ति के लिए बहुत प्रसिद्ध था । हीनयानी ब्राह्मण ने बोधिसत्व देव से पास आकर पूछा आपका नाम क्या है? बोधिसत्व ने उत्तर दिया - लोग मुझे देव के नाम से पुकारते हैं । ब्राह्मण ने पूछा - देव कौन है? बोधिसत्व देव ने उत्तर दिया - मैं हूं, । ब्राह्मण ने फिर पूछा - मैं, ये क्या है ? । देव ने उत्तर दिया - कुत्ता है । ब्राह्मण ने फिर पूछा - कुत्ता कौन है ? देव ने उत्तर दिया - तुम हो । ब्राह्मण ने फिर पूछा - तुम कौन है? देव ने उत्तर दिया - देव है । इसी प्रकार कई घंटों तक बहस होती रही । अंत में जब कोई उत्तर ना मिला, तब ब्राह्मण समझ गया कि ये व्यक्ति कोई साधारण व्यक्ति नहीं है । उसी दिन से हीनयानी ब्राह्मण, बोधिसत्व देव की बड़ी प्रशंसा करने लगा था ।

*नगर के अंदर एक बहुत सुंदर देव मंदिर है, इसके चमत्कारों की चर्चा चारों तरफ फैली हुई है । लोगों का कहना है कि कोई व्यक्ति अगर इस मंदिर में एक पैसा दान करे तो उसको पुण्य मिलता है । अगर कोई व्यक्ति एक हजार अशर्फी दान करे तो, अत्यधिक पुण्य मिलता है । वहीं अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन का दान करें तो, स्थाई सुख प्राप्त हो जाता है और उसका जन्म स्वर्ग में होता है । देव मंदिर के पास ही एक बड़ा विशाल पेड़ है, जिसकी डालियां तथा टहनियां दूर - दूर तक फैली हुई हैं । प्राचीन काल में यहां पर एक नरभक्षी यक्ष रहता था, जो लोगों को जिंदा ही खा जाता था । इसी कारण पेड़ के आसपास हड्डियों के ढेर लगे हुए हैं ।

*राजधानी के पूर्व में दो नदियों के मध्य भूमि बहुत सुहावनी और ऊंची है । यहां पर एक प्राचीन परंपरा है कि राजा, सामंत या कोई व्यापारी । जिसको दान करने की इच्छा होती है । हमेशा इसी स्थान पर आता है और अपनी संपत्ति को दान कर देता है । इसी कारण इस स्थान का नाम महादान भूमि हो गया है । राजा शिलादित्य प्रत्येक 5 वर्ष यहां पर अपनी संपत्ति दान करते हैं । इस महादान भूमि में पहले दिन राजा भगवान बुद्ध की मूर्ति को उत्तम रीति से सजाता है और बहुमूल्य रत्नों को भेंट करता है । सबसे पहले राजा स्थानीय भिक्खुओं को दान करता है, फिर प्रतिष्ठित ज्ञानियों को दान करता है । इसके बाद अन्य धर्मावलंबियों को दान करता है । सबसे अंत में विधवा, दुखी, अनाथ बालक बालिकाएं, रोगियों, दरिद्र व्यक्तियों को राजा दान करता है ।

*इस प्रकार राजा अपने पूरे खजाने को खाली कर देता है । सब कुछ दान करने के बाद राजा बड़ी प्रसन्नता से कहता है - खूब हुआ, मेरे पास जो कुछ था वह अब ऐसे खजाने में जाकर दाखिल हुआ है, जहां ना इसका कोई नास कर सकता है और ना ही कोई अपवित्र कामों में इसका उपयोग कर सकता है । राजा के दान करने के बाद, अलग-अलग देशों के राजा अपने वस्त्र और रत्न उस राजा को भेंट करते हैं, जिसने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी है । महादान भूमि के पूर्व दिशा की ओर, दोनों नदियों के संगम पर प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में मनुष्य स्नान करते हैं और प्राण त्याग करते हैं । यहां के निवासियों का विश्वास है कि जो कोई स्वर्ग में जन्म लेना चाहे, वह केवल एक दाना चावल खाकर उपवास करें और फिर संगम में डूब मरे तो, उसे स्वर्ग में जन्म मिलता है । लोगों का कहना है कि इस जल में स्नान करने से महापाप धुल जाते हैं, इसी कारण अनेक स्थानों के लोग यहां पर आते हैं ।

वाराणसी

*चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण सी यू की वाराणसी को पओलोनीस्सी के नाम से संबोधित किया गया है । राजधानी के पश्चिम दिशा में नदी बहती है और यहां की आबादी बहुत घनी है । यहां के लोगों का व्यवहार कोमल और सभ्य है । यहां पर हीनयान संप्रदाय के अनुयायी अधिक हैं, जो महेश्वर देव की आराधना करते हैं । महेश्वर देव के कुछ अनुयायी सिर का मुंडन करवाते हैं, कुछ अनुयायी बालों को बांधकर जटा बनाते हैं, तथा कुछ अन्य अनुयायी वस्त्रों का त्याग करके नग्न रहते हैं, और शरीर पर भस्म का लेप लगाते हैं । ये बड़े सिद्ध तपस्वी माने जाते हैं । यहां पर 20 देव मंदिर भी है, और मंदिरों के पास बड़े विशाल वृक्ष हैं जिनकी छाया बहुत अच्छी है ।

*राजधानी के पूर्वोत्तर दिशा में सम्राट अशोक के द्वारा बनवाया गया एक स्तूप मौजूद है । इसी के पास पत्थर का एक स्तंभ कांच के समान चमकीला है । यहां पर एक विशाल संघाराम है, जिसमें लगभग 1500 भिक्खू निवास करते हैं जो हीनयान संप्रदाय के अनुयायी हैं । संघाराम की छत पर सोने से मढ़ा हुआ एक आम के फल का चित्र है । चारों ओर लगभग 100 भगवान बुद्ध की मूर्तियां है । संघाराम के मध्य में भगवान बुद्ध की एक तांबे की मूर्ति रखी हुई है । यहां पर एक मान्यता है कि भविष्य में, इस जंबूद्वीप के अंदर शांति विराजमान होगी और मनुष्यों की आयु 80 वर्ष की होगी । तब उस समय मैत्रेय बुद्ध का जन्म होगा ।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ