ह्वेनसांग और हर्षवर्धन के मध्य बातचीत का विवरण | Xuanzang and Harshvardhan |

 

कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज)

*राजधानी के पश्चिम में गंगा नदी बहती है । नगर के चारों ओर एक खाई खोदी गई है, जिसके किनारे पर मजबूत और ऊंचे - ऊंचे बुर्ज बनाए गए हैं । यहां पर फल और फूलों से भरे हुए वन, कांच के समान स्वच्छ जल, झीलें आदि मौजूद हैं । यहां के मनुष्य सुखी और संपन्न हैं, जिनकी भाषा की शुद्धता बहुत अच्छी है, जिसकी चर्चा पूरे देश में की जाती है । यहां पर असंख्य संघाराम हैं, जिनमें 10,000 से भी ज्यादा भिक्खू निवास करते हैं । कुछ देव मंदिर भी है, जिनमें अलग संप्रदाय के उपासक रहते हैं । इस राज्य का राजा बैस जाति का क्षत्रिय है, जिसका नाम शिलादित्य है । राजा के पिता का नाम प्रभाकर वर्धन तथा बड़े भाई का नाम राज्यवर्धन था ।

*राज्यवर्धन बड़ा बेटा था, इसीलिए उसके पिता प्रभाकरवर्धन ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया था । प्रभाकर वर्धन बहुत ही योग्यता के साथ शासन करता था, जिससे कर्ण सुवर्ण (आधुनिक बंगाल) नामक राज्य का राजा शशांक (वास्तविक नाम नरेंद्र गुप्त) हमेशा अपने मंत्रियों से कहता था कि यदि हमारे पड़ोस का राजा इतना योग्य शासक है, तो यह बात हमारे लिए बहुत हानिकारक है । राजा के मंत्रियों ने विचार करके और उसकी सहमति लेकर राज्यवर्धन को गुप्त रूप से मार डाला था ।

*राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद उनके महामात्य (प्रधानमंत्री) पन्नी भोण्डी ने सभी सामंतों की एक विशेष बैठक बुलाई, जिसमें नए राजा का चुनाव करने की बात कही । सभा में उपस्थित सभी सामंतों ने नए राजा के लिए राजकुमार शिलादित्य का नाम सुझाया । प्रधानमंत्री सहित सभी सामंत इस बात पर सहमत हो गए और अपना प्रस्ताव लेकर राजकुमार शिलादित्य के पास गए ।

*राजकुमार हर्षवर्धन के सामने सभी सामंतों ने राज्य सिंहासन प्राप्त करने का अनुरोध किया, परंतु राजकुमार ने कहा कि राज्य सिंहासन को संभालना बड़ी जिम्मेदारी का काम है, इसमें हर समय कठिनाई का सामना करना पड़ता है । राजा का क्या कर्तव्य है, इसका पहले से ज्ञान होना बहुत जरूरी है । मेरी योग्यता बहुत कम है, लेकिन मेरे पिता और बड़े भाई अब संसार में नहीं है । ऐसे समय में राज्य सिंहासन को अस्वीकार करना भी उचित नहीं है । सभा में उपस्थित सभी मंत्रियों तथा योग्य व्यक्तियों ने जो फैसला लिया है, मैं उस पर अवश्य विचार करूंगा ।

*राजकुमार हर्षवर्धन गंगा नदी के किनारे बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर की मूर्ति के सामने बैठकर ध्यान में लीन हो गए । ध्यान अवस्था में ही राजकुमार हर्षवर्धन को बोधिसत्व अवलोकितेश्वर के दर्शन हुए । बोधिसत्व ने राजकुमार से पूछा - तुम किसलिए इतनी भक्ति से प्रार्थना कर रहे हो, तुम्हारी क्या कामना है? राजकुमार ने उत्तर दिया - मैं बहुत दुखी हूं, सबको दया की दृष्टि से देखने वाले, मेरे पूज्य पिताजी का देहांत हो गया है । मेरे बड़े भाई को बड़ी नीचता और निर्दयता से मार डाला गया है । मेरी योग्यता का विचार ना करके, मेरे मंत्रीगण मुझे राज्य सिंहासन पर बैठा ना चाहते हैं, जिसको मेरे पिता और बड़े भाई शुभोशित करते थे । मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे कोई मार्ग दिखाइए ।

*बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर ने उत्तर दिया - हे राजकुमार, तुम अपने पिछले जन्म में योगियों के साथ इसी जंगल में निवास करते थे । अपनी कठिन तपस्या और ध्यान साधना के बल से तुम अर्हत को प्राप्त हो गए थे । ये उसी का फल है कि तुम इस जन्म में राजपुत्र हुए हो, अब तुम राज्य को संभालो । सिंहासन पर मत बैठो और स्वयं को महाराजा भी ना कहो । इसके बाद राजकुमार हर्षवर्धन ने अपना उपनाम शिलादित्य (पंचशील का अनुसरण करने वाला) रख लिया था ।

*कुछ दिनों के बाद राजकुमार हर्षवर्धन ने अपने सामंतों से कहा "मेरे बड़े भाई के शत्रु अब तक दंडित नहीं किए गए हैं और ना ही निकटवर्ती प्रदेश मेरे अधीन हुए हैं । जब तक, यह काम नहीं हो जाएगा । तब तक, मैं अपने दाहिने हाथ से भोजन नहीं करूंगा । राजकुमार हर्षवर्धन की यह बात सुनकर सभी सामंतों ने एक सेना बनाई, जिसमें 5000 हाथी, 20,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सेना थी । इसी सेना के सहारे राजकुमार हर्षवर्धन ने पूरब से लेकर पश्चिम तक के सभी विद्रोहियों को पराजित करके अपने अधीन कर लिया था ।

*30 वर्ष के बाद राजकुमार हर्षवर्धन ने हथियार बांधना छोड़ दिया था, और शांति के साथ शासन करने लगे थे । राजकुमार ने आदेश दिया था कि समस्त भारत में कहीं पर भी जीव हिंसा ना की जावे, और ना ही कोई व्यक्ति मांस का सेवन करे, अन्यथा मृत्यु दंड दिया जाएगा । अगर कोई व्यक्ति यह सभी कार्य करता है तो उसको माफ नहीं किया जाएगा । राजकुमार हर्षवर्धन ने गंगा नदी के किनारे कई हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था, जिसमें खाने पीने का सामान भरपूर मात्रा में रखा रहता था । वैद्य औषधियां हमेशा तैयार रखते थे, जिससे यात्रियों और आसपास के दुखी दरिद्र व्यक्तियों सहायता की जा सके । पूरे भारत में जहां - जहां पर भगवान बुद्ध के पद चिन्ह थे, वहां - वहां पर राजकुमार हर्षवर्धन ने संघारामों निर्माण करवाया था ।

*प्रत्येक पांचवें वर्ष राजकुमार हर्षवर्धन विमुक्ति या महामोक्ष परिषद नामक एक विशाल मेले का आयोजन किया करते थे, जिसमें वह अपना पूरा खजाना दान कर देते थे । कुछ इतिहासकारों ने इसी विशाल मेले को "कुंभ मेले" का नाम दिया है, परंतु इसमें सच्चाई नहीं है, क्योंकि कुंभ मेले का संबंध हिंदू धर्म से है । विमुक्ति या महामोक्ष परिषद मेले का संबंध बौद्ध धर्म से है, जिसका आयोजन स्वयं राजकुमार हर्षवर्धन करते थे । राजकुमार हर्षवर्धन ने सभी भिक्खुओं को शास्त्रार्थ करने की आज्ञा दे रखी थी, और वह अनेक सिद्धांतों पर स्वयं विचार किया करते थे । राजकुमार हर्षवर्धन अपने सामंतों को 'सच्चा मित्र' के नाम से संबोधित करते थे । नगर में कहीं पर भी कुछ गड़बड़ होता था तो राजकुमार स्वयं जाकर उसे ठीक किया करते थे ।

ह्वेनसांग और हर्षवर्धन के मध्य बात चीत

हर्षवर्धन - आप किस देश से आए हैं । इस यात्रा से आपका क्या तात्पर्य है?

ह्वेनसांग - मैं टंग देश से आया हूं । बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को खोजने की लिए आपसे आज्ञा चाहता हूं ।

हर्षवर्धन - टंग देश कहां पर है, और वो यहां से कितना दूर है ?

ह्वेनसांग - मेरा देश यहां से कई हजार ली दूर पूर्वोत्तर दिशा में है, जिसे भारतवर्ष में महा चीन के नाम से जाना जाता है ।

हर्षवर्धन - मैंने सुना है कि महाचीन देश का राजा देवपुत्र टसिन है, जिसे लोग देवीय शक्ति संपन्न योद्धा कहते हैं । बहुत दिन हो गए हैं, जब मैंने उसके गुणगान की कविता को पड़ा था ।

ह्वेनसांग - चीन हमारे प्राचीन राजाओं का देश है । टंग हमारे वर्तमान राजा का देश है, जिसे देवराज कहा जाता है । उनके राज्य में सभी लोग शांति से रहते हैं ।

हर्षवर्धन - ऐसे ही राजा के होने पर प्रजा सुखी और संपन्न रहती है ।

*ह्वेनसांग और सम्राट हर्षवर्धन की मुलाकात कीमीओकीलो नामक स्थान पर हुई थी और उस समय असम के राजा भास्कर वर्मा भी वहां पर मौजूद थे । इस मुलाकात के बाद हर्षवर्धन, भास्कर वर्मा, ह्वेनसांग और दोनों राजाओं की सेना गंगा नदी के किनारे - किनारे आगे चलती गई । कुछ दिनों की यात्रा के बाद सभी लोग कान्यकुब्ज नगर पहुंचे, जहां पर पुष्पकानन बगीचे में जाकर ठहरे । इसी समय 20 अन्य देशों के राजा भी राजकुमार हर्षवर्धन की आज्ञा के अनुसार यहां पहुंचे, जिसमें उनके साथ भिक्खू, सेनापति, सामंत आदि मौजूद थे ।

*राजकुमार हर्षवर्धन ने अपने मंत्रियों को आज्ञा दी कि भगवान बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति को सब प्रकार से सुसज्जित करके हाथी पर चढ़ा कर लाई जाए । भगवान बुद्ध की स्वर्णामूर्ति को हाथी पर चढ़ा कर लाया गया, जिसके बाईं ओर राजकुमार हर्षवर्धन और भास्कर वर्मा चल रहे थे । भगवान बुद्ध की मूर्ति के पीछे 100 बड़े-बड़े हाथी वाद्य यंत्रों से लदे हुए चले आ रहे थे । संघाराम पर पहुंचकर स्वर्ण मूर्ति को सुगंधित जल से स्नान कराया गया और फिर राजा ने उसे अपने कंधे पर उठाकर, गंगा नदी के पश्चिमी संघाराम ले गए । जहां पर सैकड़ों रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणों से मूर्ति को सुसज्जित किया गया, जिसमें 20 भिक्खू और अनेक राजा रक्षक की तरह काम कर रहे थे ।

*इस कार्यक्रम की समाप्ति के बाद राजा शिलादित्य ने भोजन का आयोजन किया, जिसमें सभी भिक्खुओं, राजाओं, सेनापति, सामंत, ब्राह्मण और आमजन को आमंत्रित किया गया । भोजन समाप्ति के बाद सभी लोग अपने शिविर में सोने के लिए चले गए । उसी रात संघाराम के पास बने शिविरों में किसी ने आग लगा दी । इस घटना को देखकर राजा शिलादित्य बहुत क्रोधित हुए और कहा मेरी इच्छा थी कि, इस शुभ कार्य से संसार में मेरी कीर्ति हो परंतु मेरा प्रयत्न व्यर्थ गया । मैं इस दुखद घटना को अपनी आंखों से देख रहा हूं, मेरे जितना अधर्मी और कौन होगा ? । ये कहते-कहते राजा शिलादित्य की आंखों में आंसू आ गए और उनके अंदर क्रोध की ज्वाला उठने लगी ।

*राजा शिलादित्य पूर्वी स्तूप के पास खड़े थे, उसी समय एक विरोधी अपने हाथ में छुरी लिए हुए राजा के ऊपर झपटा, लेकिन राजा ने उस आदमी को पकड़ लिया । वहां पर उपस्थित सभी राजाओं ने कहा अपराधी को इसी क्षण मृत्यु दंड दिया जाना चाहिए, परंतु राजा शिलादित्य ने उसे मृत्युदंड देने से इन्कार कर दिया और अपराधी से पूछा । मैंने तुम्हें क्या हानि पहुंचाई थी, जो तुमने ऐसा नीच कार्य किया । अपराधी ने कहा - मैं मूर्ख और पागल हूं । विवेक मुझ में नहीं है, इसी कारण मैं विरोधियों के बहकावे में आ गया और अपने ही राजा के विरुद्ध ये नीच कार्य करने को तैयार हो गया ।

*राजा शिलादित्य ने अपराधी से फिर पूछा - विरोधियों के दिमाग में इस अधर्म कार्य के लिए विचार कैसे उत्पन्न हुआ..! अपराधी ने उत्तर दिया - हे महाराजाधिराज आपने अनेक देशों के भिक्खुओं को जो सम्मान दिया, वो सम्मान ब्राह्मणों को नहीं दिया । राजा शिलादित्य ने ब्राह्मणों और उनके कुछ अनुयायियों को बुलाया । उनसे पूछा, ये अधर्म का कार्य क्यों किया? ब्राह्मणों ने राजा के सामने अपनी बात रखी और कहा "द्वेष में आकर मैंने अग्निबाण फेंका था, सोचा था आग लगने पर लोग घबरा जाएंगे । इधर-उधर भागेंगे, उसी समय आपके ऊपर प्राण घात करने का अच्छा मौका मिल जाएगा"

*सभा में उपस्थित सभी देश के राजाओं और मंत्रियों ने एक सुर में होकर कहा कि सब विरोधियों का एक ही बार में नाश कर दिया जाए, परंतु राजा शिलादित्य ने कुछ अपराधियों को कठोर दंड दिया और बाकी 500 ब्राह्मणों को देश की सीमा से बाहर फिकवा दिया था ।

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