फाहियान की भारत यात्रा और उसका वर्णन | Faxian history |

 


फाहियान की भारत यात्रा का पूरा विवरण 

*फाहियान जब चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आए तो उन्होंने यहां पर क्या क्या देखा । फाहियान ने भारत में कौन-कौन से स्थानों की यात्रा की, और उन स्थानों के बारे में फाहियान ने अपने यात्रा विवरण में क्या-क्या लिखा, उसकी विस्तृत जानकारी, मैं आपको इस वीडियो में देने वाला हूं । फाहियान का यात्रा विवरण मूल रूप से चीनी भाषा में है और उसका अंग्रेजी में अनुवाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जेम्स लेगी ने किया था । फाहियान के यात्रा विवरण का हिंदी में अनुवाद जगन्मोहन वर्म्मा ने किया है ।

फाहियान का प्रारंभिक जीवन

*सबसे पहले फाहियान के नाम का अर्थ समझते हैं । चीनी भाषा में फा का अर्थ होता है धम्म तथा हियान का अर्थ होता है गुरु । फाहियान का अर्थ हुआ धम्मगुरु । फाहियान चीन के उयंग नामक स्थान के रहने वाले थे और वहीं पर उनका जन्म हुआ था । फाहियान के बचपन का नाम कुंग था । फाहियान बचपन में ही एक गंभीर रोग से ग्रस्त हो गए और इसी कारण उनके पिता ने उन्हें भिक्खु संघ में भेज दिया था । फाहियान ने भिक्खु संघ में रह कर, धम्म का ज्ञान सीखा और समण बन गए ।

*फाहियान जिस बिहार में रहते थे वहां पर एक दिन चोरों ने धावा बोल दिया, फाहियान ने उनसे कहा "जितना ले जाना चाहते हो उठा ले जाओ, पिछले जन्म में दान में ना देने का फल है कि तुम इस जन्म में दरिद्र हो गए हो । इस जन्म में तुम दूसरों की चोरी करते फिरते हो, अगले जन्म में इससे बड़ा दुख तुम क्या पाओगे, मुझे तो यही सोच कर दुख होता है"

*फाहियान की ये बात सुनकर चोर बिना चोरी किए ही लौट गए, और फाहियान के इस काम की प्रशंसा पूरे भिक्खु संघ की । फाहियान एक दिन त्रिपिटक का अध्ययन कर रहे थे, जिसमें विनयपिटक अधूरा था, जिसका सीधा संबंध भिक्खु संघ से होता है । फाहियान ने मन में संकल्प लिया कि मैं भारत से विनयपिटक को लाकर पूरे देश में उसका प्रचार करूंगा ।

*फाहियान चांगगान के बिहार में थे, उसी दौरान उनकी मुलाकात तावचिंग, हेकिंग, हेयिंग और हेवेई से हुई । पांचों भिक्खुओं ने मिलकर यह निश्चय किया कि हम सब लोग, भारत की यात्रा पर चलेंगे तथा वहां से त्रिपिटक की प्रतियां अपने देश में लाएंगे और उनका पूरे देश में प्रचार करेंगे । पांचों भिक्खुओं ने 399 . में चांगगान से भारत के लिए यात्रा शुरू की ।

फाहियान की भारत यात्रा

*चांगगान से लंग, कीनकी, नवतन होते हुए चांगाई पहुंचे, जहां पर फाहियान की मुलाकात चेयेन, हेकीन, सांगशाओ, पावयुन, सांगकिंग से हुई, जो फाह्यान की भारत यात्रा में शामिल हुए । चांगाई से फाहियान तनहांग पहुंचे, जो चीन की दीवार के पश्चिम दिशा में पड़ता है । तनहांग से फाहियान अपने साथियों के साथ गोबी मरुस्थल की तरफ चल पड़े, जिसे पार करने में उन्हें कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा । फाहियान आगे लिखते हैं "ना ऊपर कोई चिड़िया उड़ती है और ना नीचे कोई जंतु दिखाई पड़ता है । आंख उठाकर जिधर देखो, कहीं चारों ओर जाने का मार्ग नहीं सूझता । बहुत ध्यान देने पर भी कोई मार्ग नहीं मिलता । हां मुर्दों की सूखी हड्डियों के चिन्ह अवश्य मिलते हैं"

*गोबी मरुस्थल को पार करके फाहियान शेनशेन जनपद पहुंचे । शेनशेन से ऊए देश पहुंचे और ऊए से खुतन जनपद पहुंचे । खुतन जनपद के बारे में, अपने लेखों में फाहियान ने लिखा है कि यह जनपद बहुत वैभवशाली है । यहां पर रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है और भगवान बुद्ध की मूर्ति रथ में रखी जाती है । दोनों ओर दो बोधिसत्व की मूर्तियां रखी जाती हैं । सभी मूर्तियां सोने/चांदी से निर्मित होती हैं । राजा अपना मुकुट उतारता है, नए कपड़े धारण करता है और अपने हाथ से फूल बरसाता है ।

*खुतन के बाद फाहियान जीहो, कीचा, तोले, उद्यान, सुहोतो के बाद गांधार पहुंचे, जहां पर सम्राट अशोक के वंशज घम्म वद्धन का शासन था । गांधार से फाह्यान तक्षशिला पहुंचे और तक्षशिला से पुरुषपुर अर्थात आज के पेशावर जनपद पहुंचे । जहां पर फाहियान ने 400 हाथ ऊंचा और अनेक रत्नों से जड़ित राजा कनिष्क के द्वारा बनवाया गया धम्म स्तूप देखा, जो जम्बूदीप का सबसे सुंदर स्तूप माना जाता था । भगवान बुद्ध का भिक्खापात्र भी इसी जनपद में है । फाहियान के कुछ साथियों ने भगवान बुद्ध के भिक्खापात्र की पूजा की और वापस अपने देश लौट गए ।

*पेशावर से फाहियान नगरहरा जनपद पहुंचे और वहां से हिमालय की पहाड़ियों में चले गए, जहां पर अत्यधिक ठंडी हवा चल रही थी । फाहियान के साथी ठिठुरकर मूक रह गए । हेकिंग तो बीमार हो गया और उसने फाहियान से कहा, मैं तो जी नहीं पाऊंगा, तुम सब तत्काल यहां से भागो ऐसा ना हो कि सब के सब यही मर जाएं, इतना कहकर वह मर गया । फाहियान उसके शव को पीट-पीटकर रोने लगा कि मुख्य उद्देश्य पर पानी फिर गया, हम क्या करें ?

*इसके बाद फाहियान लोई, पोना, हिन्तू होते हुए पंजाब पहुंचे, जहां पर बौद्ध धर्म का बहुत बड़ा प्रचार था । पंजाब के बाद फाहियान मथुरा (मताऊला) पहुंचे, जहां पर उन्होंने कई बिहारों को देखा, जिनमें तीन हजार से ज्यादा भिक्खू रहते थे और यहां के सभी राजा बुद्ध के अनुयाई थे । फाहियान आगे लिखते हैं कि इस देश का कोई निवासी ना जीव हत्या करता है, ना मद्यपान करता है और ना लहसुन प्याज खाता है ।

*मथुरा के बाद फाह्यान संकिसा (फर्रुखाबाद जिले में) पहुंचे, संकिसा के बारे में फाहियान लिखते हैं कि यहां पर जैन आचार्य और समण भिक्खूओं में स्थान को लेकर विवाद चल रहा था । संकिसा के बाद फाहियान कन्नौज पहुंचे, जहां पर नाग बिहार में उन्होंने वर्षावास बिताया । कन्नौज के बाद फाहियान साकेत (अयोध्या) पहुंचे, जहां पर उन्होंने कश्यप बुद्ध, ककूच्छंद बुद्ध, कनक मुनि बुद्ध, गौतम बुद्ध के स्तूप देखे । साकेत के बाद फाहियान श्रावस्ती पहुंचे, जहां पर उन्होंने जेतवन बिहार देखा । यहीं पर फाहियान ने भगवान बुद्ध का एक बड़ा स्तूप देखा और उसी के पास में एक जैनियों का देवालय भी था । फाहियान आगे कहते हैं कि "जब सूर्य पश्चिम दिशा में रहता था तो भगवान बुद्ध के बिहार की छाया जैनियों के देवालय पर पड़ती थी, परंतु जब सूर्य पूर्व दिशा में रहता था तब जैनियों के देवालय की छाया भगवान बुद्ध के बिहार पर नहीं पड़ती थी"

*फाहियान आगे लिखते हैं कि यहां पर देवदत्त के अनुयायियों के भी संघ हैं, और वह सिर्फ कश्यप बुद्ध, ककूच्छंद बुद्ध, कनक मुनि बुद्ध की पूजा करते हैं, परंतु भगवान बुद्ध की पूजा नहीं करते हैं । श्रावस्ती के बाद फाहियान कपिलवस्तु पहुंचे, जहां पर ना राजा है, ना प्रजा है केवल खंडहर और उजाड़ है । फाहियान ने यहां पर भगवान बुद्ध का महल देखा, जिसमें उनकी और माता की प्रतिमा बनी थी । फाहियान आगे लिखते हैं कि नगर के पूर्व में 50 ली पर राजा का बाग है और उस बाग का नाम लुंबिनी वन है, जहां पर कुमार का जन्म हुआ था ।

*कपिलवस्तु के बाद फाहियान कुशीनगर पहुंचे । नगर के उत्तर में शाल के 2 वृक्षों के मध्य निरंजना नदी के किनारे, भगवान बुद्ध ने उत्तर दिशा की ओर सिर करके महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था । कुशीनगर से फाहियान वैशाली गए, जहां पर महावन कूटागार बिहार देखा । कुशीनगर से फाहियान पाटलिपुत्र पहुंचे और उस समय पाटलिपुत्र का नाम पुष्पपुर था । फाहियान ने यहां पर सम्राट अशोक का महल देखा और यहीं पर एक बमन कुमार नामक बौद्ध भिक्खू से मुलाकात हुई, जो बहुत ही तर्कशील और ज्ञान संपन्नता था ।

*पाटलिपुत्र से फाहियान राजगृह गए, जहां पर अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध से 42 सवाल पूछे थे । नगर के उत्तर में वेणुवन विहार पड़ता है, जो अब तक मौजूद है । राजगृह से फाह्यान नालंदा गए, जहां पर सारिपुत्र का स्तूप देखा । फाहियान बोधगया भी गए । बोधगया के बारे में फाहियान लिखते हैं कि इस नगर में सुनसान और उजाड़ है । फाह्यान काशी, सारनाथ, कौशांबी, चम्पा और ताम्रलिप्ति गए और ताम्रलिप्ति में उन्होंने कई बंदरगाहों को देखा । ताम्रलिप्ति में फाहियान 2 वर्ष तक रुके और इसके बाद सिंहल द्वीप की यात्रा पर निकल गए थे । सिंहल द्वीप में फाहियान ने एक विहार देखा, जिसमें भगवान बुद्ध के दंत मौजूद थे । फाहियान यहां पर दो वर्ष तक रहे और उन्होंने विनयपिटक, दीर्घ निकाय, संयुक्त निकाय आदि की प्रतियां हासिल की, जिससे उनके देश के भिक्खू परिचित नहीं थे । इन प्रतियों को लेकर फाहियान एक व्यापारी के बड़े पोत पर चढ़ गए और वहां से जावा पहुंचे, जावा से अपने देश चले गए थे ।

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